विशुद्धसागर एक दिगम्बर जैन साधु है। उन्हें उनकी विद्वत्ता और तप के लिए जाना जाता है।
विशुद्धसागर जी का जन्म १८ दिसम्बर १९७१ को भिडं (म.प्र.) मे हुआ था | उनके पिता का नाम राम नारायण जी जैन ( मुनि श्री विश्वजीत सागर जी ) व माता का नाम श्रीमती रत्तीबाई जैन है | आचार्य श्री १०८ विराग सागर जी महाराज द्वारा क्षुल्लक दीक्षा (११ अक्टुबर १९८९ भिडं) , ऐलक दीक्षा (१९ जून १९९१ पन्ना) , मुनि दीक्षा (२१ नवंबर १९९१ श्रेयासं गिरि) एवमं आचार्य पद (३१ मार्च २००७ महावीर जयन्ती औरंगाबाद महाराष्ट्र) प्राप्त किया |
मुनिश्री मनोज्ञ सागर जी महाराज, मुनिश्री प्रशम सागर जी महाराज, मुनिश्री प्रत्यक्ष सागर जी महाराज(समाधिस्थ) मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज, मुनिश्री सुव्रत सागर जी महाराज, मुनिश्री सुयश सागर जी महाराज, मुनिश्री अनुपम सागर जी महाराज, मुनिश्री प्रणत सागर जी महाराज आदि |
जीव हत्या ना करें, किसी को ठेस न पहुचांयें!
अहिंसा ही सबसे महान धर्म है। जियो और जीने दो
व्यसन से मनुष्य का चरित्र ही नहीं धन भी नष्ट हो जाता है।
जन जन की है यही पुकार, व्यसन का करो बहिष्कार
बंद करो ये लहूधार का , जीवन का व्यापार
मूक पशू की पीड़ा समझो,अपनाओ शाकाहार
जैन धर्म का प्रतीक (Jain Symbol):
1. परिचय:
2. प्रतीक का रूप:
3. स्वस्तिक का अर्थ:
4. चौबीस तीर्थंकरों का प्रतीक:
5. प्रतीक के महत्व:
6. समर्पण और एकता:
जैन प्रतीक ने जैन समुदाय में एक एकता और धार्मिकता की भावना को समर्थन किया है और इसे जैन धर्म के सिंबोल के रूप में माना जाता है।
“दान करें और जीवनोत्तर उत्कृष्टता का समर्थन करें: आपका योगदान जैन समाज को सशक्त बनाता है।”
“आपका पर्यावरण, आपकी चिंता। यह उन लोगों और मुद्दों के लिए धन जुटाने का समय है जो आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। आइए इस महत्वपूर्ण पहल में भाग लेने के लिए एक साथ आएं और समृद्धि, सेवा और प्रेम का संदेश फैलाएं। आपका समर्थन हमारे समुदाय को मजबूत करेगा और हमें उत्कृष्टता के एक कदम और करीब ले जाएं। जैसा कि हम कहते हैं – भागीदार बनें, योगदान दें और बदलाव लाएं।
श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज द्वारा रचित स्नात्र पूजा, तीर्थंकर भगवान के जन्म कल्याणक का सच्ची भक्ति से वर्णन करने वाला एक काव्यात्मक वृत्तांत है। प्रत्येक श्लोक तीर्थंकर भगवान के प्रति दिव्य शासक इंद्र की श्रद्धा को दर्शाता है। एक उल्लासपूर्ण प्रार्थना जो प्रभु की स्तुति गाने का अमूल्य अवसर देती है।
स्थान की महिमा की प्रशंसा करने के लिए प्रदर्शन किया गया – सिद्धाचल महातीर्थ – हमारे पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अपने जन्म के चक्र में 99 -नव्वनु पूर्व*- बार दौरा किया।